Thursday, October 31, 2019

देव तुल्य देवदार का वध लोहाघाट में

लोहाघाट का नाम आते ही मन और मस्तिष्क पर एक खूबसूरत तस्वीर उभरती है जिसमें शिवाले से बहती हुई खूबसूरत लोहावती नदी और चारों देवदार के सुंदर वृक्ष। पर पिछले 10- 15 सालों में अंधाधुंध गति से भवनों का निर्माण बिना किसी प्लानिंग से किया गया है जिससे लोहावती नदी नाले में और देवदार के पेड़ों को सुखाने का काम तीव्र गति से हुआ है। एक न्यूज़ रिपोर्ट के अनुसार अब तक शहर के लगभग 50 परसेंट पेड़ों को सुखाकर काटा जा चुका है और दुर्भाग्य की बात यह है कि जनता, प्रशासन, फॉरेस्ट डिपार्टमेंट सभी लोग सोए हुए हैं। सबसे ज्यादा नुकसान एसडीम कोर्ट से लगे हुए मीना बाजार और आदर्श कॉलोनी में रिपोर्ट किया गया है। आदर्श कॉलोनी में तो यह काम अभी भी जारी है।





एक और हमारे माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी सारे देश से अपील करते हैं कि ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाएं वहीं दूसरी ओर लोहाघाट के आदर्श कॉलोनी के लोग इन विशालकाय सुंदर देवदार के पत्नी को सुखाने के काम में लगे हुए हैं। मैंने जब यह बात अपने एक मित्र को बताएं तो उसने मुझे इसका कारण फॉरेस्ट डिपार्टमेंट का लचीला रुख बताया जो इन लोगों पर कार्रवाई नहीं करता है। जब इन पेड़ों को सुखाकर काटा जाता है तो वह वह लकड़ी कहां जाती है इसका अभी तक कोई हिसाब-किताब कहीं पर नहीं दिया गया।
 है।
लोगों द्वारा अतिक्रमण करके जहां भी जमीन मिली पेड़ों के बीच में चाहे 10 फीट की जमीन हो वहां पर कॉंक्रीट के घर खड़े कर दिए हैं और नगर पंचायत कोई भी एक्शन लेने में नाकाम रही है।




Tuesday, March 10, 2009

Kumauni holi

Uttaranchali Holi (Kumaoni Holi)

The uniqueness of the Kumaoni Holi lies in its being a musical affair, whichever may be its form, be it the Baithki Holi, the Khari Holi or the Mahila Holi. The Baithki Holi and Khari Holi are unique in that the songs on which they are based have touch of melody, fun and spiritualism. These songs are essentially based on classical ragas. No wonder then the Baithki Holi is also known as Nirvan Ki Holi.

The Baithki Holi begins from the premises of temples, where Holiyars (the professional singers of Holi songs) as also the people gather to sing songs to the accompaniment of classical music.

Kumaonis are very particular about the time when the songs based on ragas should be sung. For instance, at noon the songs based on Peelu, Bhimpalasi and Sarang ragas are sung while evening is reserved for the songs based on the ragas like Kalyan, Shyamkalyan and Yaman etc.

The Khari Holi is mostly celebrated in the rural areas of Kumaon. The songs of the Khari Holi are sung by the people, who sporting traditional white churidar payajama and kurta, dance in groups to the tune of ethnic musical instruments.

Wednesday, October 15, 2008

Uttaranchal AIPAN - Uttarakhand Worldwide - Kumaon and Garhwal AIPAN - Culture and tradition of Uttarakhand

Uttaranchal AIPAN - Uttarakhand Worldwide - Kumaon and Garhwal AIPAN - Culture and tradition of Uttarakhand

UTTARAKHANDI ART - Aipan

Kumaaoon की आलेखन परम्परा

कुमाऊँ का प्राचीन इतिहास अनेक कबीलों तथा विभिन्न संस्कृतियों को अपने आँचल में समेटे हुए है। कुमाऊँ में अल्पना तथा भिप्ति चित्रों का प्रत्यक्ष रुप व चलन चन्द शासन काल से होता है।

कुमाऊँ में चन्द वंश की स्थापना का सूत्रपात चम्पावत में सोमचन्द से आरम्भ होता है। सोमचन्द तथा उसके दश वंशजों का शासन ९७५ ई. से ११७८ ई. तक माना जाता है। इस काल की सबसे उल्लेखनीय घटना इन्द्र चन्द का चीनी राजकन्या से विवाह होना है। इस विवाह के कारण स्थानीय जनता ने विद्रोह कर दिया और उसे तथा उसके शासन काल में बाहर से आये हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय (राजपूत) लोगों को कुमाऊँ से बाहर भगा दिया। यह लोग २०० से २५० वर्ष तक कुमाऊँ में नहीं आ सके। परन्तु १३६५ ई. में उन्होंने पुन: काली कुमाऊँ में अपना राज्य स्थापित किया।

सबसे ध्यान देने वाली बात यह है कि यहाँ के प्रशासक अथवा शासक राजपूत वर्ग - महरा, फड़त्याल, जिन्ना, जलाल, मनराल, रोतौला, रजबार आदि में यह कला समृद्ध नहीं है और न उनके सांस्कृतिक जीवन का अटूट अंग। ऐपण व भिप्ति चित्रकला परम्परा कुमाऊँ में मात्र साह (साह) व ब्राह्मणों में ही अपने सम्पूर्ण विकसित स्वरुप तथा जीवन के समस्त सांस्कृतिक कार्यकलापों की गहराई की हद तक जुड़ी हुई है।

ब्राह्मणों में पंत व जोशी अपना मूल स्थान महाराष्ट्र व गुजरात मानते हैं। कहा जाता है कि सोम चन्द ८ वीं शताब्दी में गुजरात से ही आकर यहाँ बसा था। दूसरा मान्यता है कि सोम चन्द 'झूसी' इलाहाबाद का राजकुमार था और बैस राजवंश से सम्बन्धित था। तीसरी जनश्रुति कहती है कि सोम चन्द कन्नौज के शासक का भाई था, जो ज्योतिषियों की भविष्यवाणी के अन्तर्गत नये राज्य की कामना हेतु कुमाऊँ में आया था। उसका यहाँ आगमन उसकी बद्रीनाथ यात्रा के निमित्त हुआ था। तत्कालीन शासक ब्रह्मदेव ने अपनी कन्या का विवाह इससे किया और दहेज में चम्पावत के सुई क्षेत्र, दुर्ग तथा तराई की कुछ भूमि भी इसे प्रदान की। इस कथन का साक्ष्य कुमाऊँ क्षेत्र में घसने वाले 'साह' लोगों की इस मान्यता से होता है कि साह अपना पूर्व स्थान 'झूसी' इलाहाबाद को मानते हैं और आज भी साह लोग विशेष रुप से बढ़े-बूढ़े जब कभी प्रयाग व कुम्भ स्नान के लिए जाते हैं, तब झूसी में ही रहना सार्थक समझते हैं। दूसरी बात यह है कि कुमैया साह अपना पूर्ववर्ती स्थान चम्पावत को मानते हैं। इन सब बातों से यही विश्वास होता है कि 'साह' लोग चन्दों के साथ ही बाहर से आये।






















aipanon व भिप्ति चित्रों, जिनको 'लिख थाप' या थापा कहते हैं, में अनेक प्रकार के प्रतीक व लाक्षणिक अन्तर दृष्टिगोचर होते हैं। साहों व ब्राह्मणों के ऐपणों में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि ब्राह्मणों में चावल की पिष्ठि निर्मित घोल द्वारा धरातलीय अल्पना अनेक आलेखन प्रतीकों, कलात्मक डिजाइनों, बेलबूटों में प्रकट होती है। साहों में धरातलीय आलेखन ब्राह्मणों के समान ही होते हैं परन्तु इनमें भिप्ति चित्रों की रचना की ठोस परम्परा है। थापा श्रेणी में चित्रांकन दीवलों या कागज में होता है। यह शैली ब्राह्मणों में नहीं के बराबर है। जिन आलेखनों या चित्रों की रचना कागज में की जाती है। उन्हें प कहते हैं। इसी प्रकार नवरात्रि पूजन के दिनों में दशहरे का पट्टा केवल साह लोग बनाते हैं। विवाहोत्सव में विवाहित स्रियों के लिए विशेष प्रकार का कुसुमी पिछौड़ा (विशेष ओढ़नी) सारे कुमाऊँ में प्रचलित है परन्तु इनके निर्माण व रंगों की आभी साह व ब्राह्मणों में विशेष है। साहों के कुसुमी पिछौड़े विशिष्ट रंगों व प्रकाश के कारण तथा केन्देर स्थल के निर्माण के कारण सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं और यही ब्राह्मणों के कुसुमी पिछौड़े के आलेखन व रंग आभा तथा साहों के कुसुमी पिछौड़े के रंगों के प्रयोग तथा केन्द्र के आलेखन का प्रबल लाक्षणिक अन्तर स्पष्ट करते हैं। ऐपणों में एक स्पष्ट अन्तर यह है कि ब्राह्मण गेरु मिट्टी से धरातल का आलेपन कर चावल के आटे के घोल से सीधे ऐपणों का आलेखन करते हैं परन्तु साहों के यहाँ चावल की पिष्टि के घोल में हल्दी डालकर उसे हल्का पीला अवश्य किया जाता हैं तभी ऐपणों का आलेखन होता है। ज्ञात हुआ कि उच्चकुलीन ब्राह्मणों में जो दीवानों की कोटि में आते हैं, वे भी 'बिस्वार' (चावल की पिष्ठि का घोल) में कच्ची अथवा सूखी हल्दी पीस कर डाल दी जाती है और पीली आभा युक्त ऐपण दिये जाते हैं।

साहों के यहाँ ऐपणों के अन्तर्गत एक और विशेष शैली है, जिसे 'वर' कहा जाता है। क्योंकि इसमें बूँदों तथा उनकी सँख्या द्वारा समान रुप से वरों व डिज़ाईनों का निर्माण किया जाता है। हर डिजाइन व अभिप्राय के लिए बूंदों की अलग-अलग संख्या निर्धारित है। प्रत्येक आलेखन विशेष ज्योमितीय अलंकरण, बूंदों की संख्या, विशेष रंग द्वारी निर्धारित व नामांकित है। पट्टे पर वर बूंद मुख्यत: उपासना या पारिवारिक पूजा गृह में ही सुशोभित रहते हैं। पर बूंदों का चित्रांकन पूजा गृह के अतिरिक्त भी दृष्टिगोचर होता है। यदि उनके निर्माण का कारण जाना जाय तो शत प्रतिशत यह तथ्य उजागर होता है कि अमुक समय में विवाह या यज्ञोपवीत संस्कार उस स्थान पर हुआ था, इसलिए वहाँ वरों का निर्माण हुआ था। थापा पट्टा शैली, ज्यूति मातृका इत्यादि शैलियाँ चम्पावत या संलग्न क्षेत्र में मात्र कुछ ब्राह्मण अथवा साह परिवारों के अतिरिक्त कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होतीं। अन्य इनका ज्ञान नहीं रखते। इन शैलियों की विगत १०० वर्षों से सुरक्षित अनेक रचनाएँ आज भी अल्मोड़ा, रानीखेत में हैं। इनका आलेखन आज भी उसी उत्साह व मान्यताओं के आधार पर होता है जो विगत शताब्दियों से था। प्रयुक्त संकेतों, कोणों, बिन्दुओं, चित्रकृतियों व विभिन्न अनुष्ठानों के लिए विभिन्न संख्या को बिन्दुओं द्वारा निर्मित यंत्र चौकियों के देखने से स्पष्ट होता है कि कुमाऊँ की इस कला में वज्र यानी, शैव व शाक्त तांत्रिक अवुष्ठानों व मान्यताओं का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है।

रेखाचित्रों वाले पट्टों व ज्यूतियों में 'जैनशैली' जो अपनी प्रारम्भिक अवस्था में गुजरात में 'अपभ्रंश' शैली के रुप में विकसित व प्रतिष्ठित हुई थी, स्पष्ट रुप से दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त राजस्थानी शैली, जो कि अपभ्रंश शैली का ही विकसित रुप थी व विशेष रुप से 'मालवा शैली', जो राजस्थानी शैली की ही एक धारा है, से भी विकसित होकर उभरी। इसका उदाहरण ज्यूति मात्रिका पट्टा, शेष शय्या (शेषनाग की शय्या पर विराजमान विष्णु व लक्ष्मी), महालक्ष्मी पट्टा, डोर दुबज्योड़ पट्टा, कृष्ण जन्माष्टमी पट्टा व नवदुर्गा पट्टा (नवरात्रि पूजन के समय) में दृष्टिगोचर होता है।

कुमाऊँ की ज्यूति मातृका पट्टों, थापों तथा वर बूदों में श्वेताम्बर जैन अपभ्रंश शैली का भी स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। श्वेताम्बर जैन पोथियों की श्रृंखला में बड़ौदा के निकट एक जैन पुस्तकागार में ११६१ ई. की एक ही पुस्तक में औधनियुक्ति आदि सात ग्रंथ मिले, जिनमें १६ विद्या देवियों, सरस्वती, लक्ष्मी, अम्बिका, चक्र देवी तथआ यक्षों के २१ चित्र बने हैं। इन ग्रंथ चित्रों में चौकोर स्थान बनाकर एक चौखट सी बनाई गई हैं और इनके मध्य में आकृतियाँ बिठाई गई हैं। ठीक इसी प्रकार का चित्र नियोजन कुमाऊँ के समस्त ज्यूति पट्टो, थापों व बखूदों में किया जाता है। कुमाऊँ में ज्यूति पट्टों में महालक्ष्मी, महासरस्वती व महाकाली ३ देवियाँ बनाई जाती है साथ में १६ षोडश मातृकाएं तथा गणेश, चन्द्र व सूर्य निर्मित किये जाते हैं। अपभ्रंश शैली में रंग व उनकी संख्या भी निश्चित है। जैसे लाल, हरा, पीला, काला, बैगनी, नीला व सफेद। इन्हीं सात रंगों का प्रयोग कुमाऊँ की भिप्ति चित्राकृतियों अथवा थापों व पट्टों में किया जाता है।


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